आजकल रील्स का ट्रेंड चल गया है। हम डेढ़ मिनट के अन्दर पूरी ज़िंदगी का सार समझ और समझा रहे होते हैं। प्रेम की परिभाषा से लेकर बेरोजगारी का दंश झेलती युवा पीढ़ी की परेशानी बहुत फूहड़ ढंग से बयां कर रहे होते हैं। वास्तव में रील्स पर आने वाले कंटेंट हमारे आसपास में घट रही घटनाओं का काल्पनिक चरित्र के माध्यम से परोसा गया सच है । कविताओं, गजलों को पढ़ना एक सुखद माहौल बनाता है तो साथ ही फर्जी मोटिवेशनल स्पीकर लोगों को भ्रामक भी।
दरअसल,मैं जो बात करने आया हूँ वह रील्स के बेहद ही नकारात्मक प्रभाव को लेकर है। हमें किस तरह स्त्री विरोधी बनाया जा रहा है, किस तरह हम अविश्वास को अपना सच मानने लगे हैं। सेक्सिस्ट जोक्स और मीम्स इतने गन्दे तरीके से प्रस्तुत किए जा रहे हैं कि हम उसे सबके साथ बैठकर देख या सुन नहीं सकते और अकेले में सुनने का जो प्रभाव अवचेतन पर पड़ रहा वह तो जग जाहिर है। कुछ दिनों पहले एक रील्स देख रहा था जिसमें एक लड़का बाहर खड़ा है उसके ठिक बगल में एक कार हील रही है। तभी कोई बगल से आता है और पूछता है भाई यह क्या हो रहा है तो वह बोलता है मेरे कुछ पैसे बाकी थे मेरी गर्लफ्रेंड उसे चुका रही है और कार से लड़की की उत्तेजक आवाजें आ रही होती हैं। इस रील्स को देखकर हमारी युवा पीढ़ी क्या धारणा बना रही होगी या बना चुकी होगी यह मुझे कहने की जरूरत नहीं है। सिर्फ़ इतना ही कि हम महिलाओं को २१ वीं सदी में भी वस्तु से इतर नहीं देख पा रहे। कुछ और उदाहरण देखते हैं। कुछ दिन पहले एक मित्र ने मुझे कपिल शर्मा के शो की एक क्लिप भेजी जिसमें एक आदमी एक रसियन लड़की को लेकर आता है तो कपिल उससे पूछता है " यह कौन है?" वह आदमी जवाब देता है "रसियन है।" कपिल के मुंह से निकलता है "ओह! रसियन... आठ हज़ार।" और क्लिप समाप्त हो जाती है। इनके बारे में कुछ कहना ही क्या है? इनके शोज ही स्त्री विरोधी कंटेंट पर टिके हुए हैं। किन्तु, इस रील्स को देखकर आम आदमी की धारणा किसी रसिया से आई मेहमान के प्रति सम्मान के लिए तो नहीं ही बना रही होगी। अब बात कर लेते हैं क्लास डिवीजन का मज़ाक बनाती रील्स का। क्लास डिवीजन होने के साथ साथ वे स्त्री विरोधी हैं यह अलग से कहने की आवश्यकता नहीं समझता। एक रील्स में देखता हूँ कि एक लड़के को एक लड़की अपमानित करके छोड़ देती है इसलिए क्योंकि वह उसके खर्चे नहीं उठा पाता। कुछ साल बाद उस लडकी का ब्वॉयफ्रेंड अपने बॉस से मिलवाने के लिए उस लड़की को ले जाता है और वह बॉस उसी लडकी के द्वारा अपमानित किया हुआ उसका प्रेमी होता है। अब इस रील्स को देखकर आम युवा प्रेरित हो जाते हैं और लड़कियों को वो सब कह देते हैं जिनसे उनका यौनिक और चारित्रिक अपमान हो सके। ध्यान रहे यहां मैंने चरित्र को यौन संबंध से नहीं जोड़ कर देखा है। एक सप्ताह पहले ही एक युवा शायर मंच से अपना कोई शे'र पढ़ रहे होते हैं जिसका सार यही होता है कि "औरतें अपने शौहर का नाम नहीं लेती" और वहाँ सुन रहे श्रोता सहित मंच पर बैठे सारे कवि/ शायर लगभग पाँच मिनट तक एक लय में तालियाँ बजाते रहते हैं। कम से कम मंचों पर कविताओं/ गजलों के नाम पर २१ वीं सदी में प्रोग्रेसिव युवा शायरों/कवियों से सदियों पुरानी पितृसत्तात्मक सोच को तालियों के बलबूते मजबूत करने की तो उम्मीद नहीं की थी। किन्तु, हमें तालियाँ मिली और हमनें अपने शे'र को कालजयी मानते हुए उसे वैलिडेशन दे दिया। इसी तरह नए नए बाबाओं और मुल्लों ने अपने-अपने स्तर से धर्म के नाम पर अवैज्ञानिक तर्क और तथ्य की उल्टी करनी शुरु कर दी है और उसका परिणाम यह हो गया है कि हम विवेकानंद और पैगम्बर के धर्म को झूठा और इनको अंतिम सत्य मानकर रील्स की दरिया में अपनी बुद्धि बहा आए हैं। कई बार तो रील्स पर उपलब्ध फैक्ट को लेकर लोग लड़ जाते हैं। एक समय ऐसा आयेगा कि हम क़िताब खोलकर उन्हें प्रमाण दे रहे होंगे और वो रील्स दिखाकर हमारा माथा फोड़ देंगे। हम कम समय में सबकुछ जान लेना चाह रहे हैं। और वह आपकी रुचि को समझते हुए और अगर नहीं है तो रुचि पैदा करते हुए उस गड्ढे में भरते जा रहे हैं जहाँ सबकुछ का समाधान और कारण डेढ़ मिनट में उपलब्ध है।
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